गोपेश्वर। चमोली के सलूड़ डुंग्रा गांव में आगामी 27 अप्रैल को विश्व धरोहर रम्माण का आयोजन किया जाएगा। यहां प्रतिवर्ष बदरीनाथ धाम की यात्रा आरंभ होने पर रम्माण मेले का आयोजन किया जाता है। ग्रमीणों ने मेले की तैयारियां शुरू कर दी है। इस वर्ष मेले में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने शामिल होने की सहमति जताई है। रम्माण मेले के संयोजक डा. कुशल भंडारी ने बताया कि 27 अप्रैल को आयोजित होने वाले मेले की तैयारियां पूर्ण कर ली गई है।
क्या है रम्माण?
उत्तराखंड के चमोली जिले के सलूड़ डुंग्रा गांव में प्रतिवर्ष अप्रैल माह में रम्माण मेला का आयोजन किया जाता है। आयोजन में 12 जोड़ी ढोल और दमाऊ की थाप पर 18 तालों के साथ लोक शैली में भगवन राम की लीला का आयोजन किया जाता है। साथ इसके भंकोरे, मंजीरे और झांझरों का भी संगीत के लिए उपयोग किया जाता हैं। यह नृत्य की मुखौटा नृत्य शैली है। रम्मवाण में रामकथा के मंचन के साथ ही स्थानीय पौराणिक देवयात्रा, लोक नाटक को लोक शैली में प्रस्तुति किया जाता है। इसकी विशिष्टता के चलते 2 अक्टूबर 2009 में यूनेस्को ने रम्माण मेले को विश्व धरोहर घोषित किया गया था।
रम्माण मेला कई कार्यक्रमों का संगम
रम्माण मेला कभी 11 दिन तो कभी 13 दिन तक भी मनाया जाता है। यह विविध कार्यक्रमों, पूजा और अनुष्ठानों की एक शृंखला है। इसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नृत्य, गायन, मेला आदि विविध रंगी आयोजन होते हैं। इसमें परम्परागत पूजा-अनुष्ठान तथा मनोरंजक कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं। यह भूम्याल देवता के वार्षिक पूजा का अवसर भी होता है एवं परिवारों और ग्राम-क्षेत्र के देवताओं से भेंट करने का मौका भी होता है।
विश्व की सांस्कृतिक धरोहर का दर्जा
संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन यूनेस्को द्वारा साल 2009 में इस रम्माण को विश्व की सांस्कृतिक धरोहर का दर्जा दिया गया था। 7 जोड़े पारंपरिक ढोल-दमाऊ की थाप पर मोर-मोरनी नृत्य, बण्या-बाणियांण, ख्यालरी, माल नृत्य सबको रोमांचित करने वाला होता है और कुरजोगी सबका मनोरंजन करता है। अंत मे भूमि क्षेत्रपाल देवता अवतरित होकर 1 साल तक के लिए अपने मूल स्थान पर विराजित हो गए।
बैशाख के महीने में होता है आयोजित
रम्माण उत्सव उत्तराखंड के चमोली जनपद के विकासखंड जोशीमठ में पैनखंडा पट्टी के सलूड़ ,डुंग्रा तथा सेलंग आदि गावों में प्रतिवर्ष अप्रैल (बैशाख ) के महीने में आयोजित किया जाता है। रम्माण सलूड़ की 500 वर्ष पुरानी परम्परा है।
शंकराचार्य ने की थी शुरुआत
मान्यता है कि जब मध्यकाल में सनातन धर्म का प्रभाव काम हो रहा था। तब आदिगुरु शंकराचार्य जी ने सनातन धर्म में नई जान फुकने के लिए पुरे देश में चार मठों की स्थापना की। मंदिरों की स्थापना की, तीर्थों की स्थापना की। जोशीमठ के आस पास, शंकराचार्य के आदेश पर उनके कुछ शिष्यों ने हिन्दू जागरण के लिए गांव गांव में जाकर पौराणिक मुखौटों से नृत्य करके लोगों में जन चेतना जगाने का प्रयास किया।
इसलिए इस आयोजन को कहते हैं रम्माण
जो धीरे -धीरे इन क्षेत्रों में इस समाज का अभिन्न अंग बन गया। रामायण से जुड़े प्रसंगो के कारण इसे रम्माण उत्सव कहते हैं।
लोक शैली में होता है प्रस्तुतिकरण
राम से जुड़े प्रसंगो के कारण इसे लोक शैली में प्रस्तुतिकरण, लोकनाट्य, स्वाँग, देवयात्रा, परमपरागत पूजा अनुष्ठान, भुम्याल देवता की वार्षिक पूजा, गावं के देवताओं की वार्षिक भेंट आदि का आयोजन इस उत्सव में होते हैं।
अलग-अलग चरित्र पहनते हैं पत्तर
इसमें विभिन्न चरित्र और उनके लकड़ी के मुखोटों को पत्तर कहते हैं। पत्तर शहतूत (केमू ) की लकड़ी पर कलात्मक तरीके से उत्कीर्ण किये होते हैं।