उमेश भंडारी
सैन्य बाहुल्य प्रदेश उत्तराखंड, प्राकृतिक नेमतों व शौर्य और साहस से भरपूर इस राज्य के बारे में एक कहावत खूब प्रचलित है। कहते हैं कि उत्तराखंड के पहाड़ों के काम न उसकी जवानी आती है, और न ही पानी। यहां तक कि पहाड़ से बहने वाली बयार भी पहाड़ के लिए पराई हो जाती है। लेकिन अब हवा ने रूख मोड़ लिया है। शहरों की ओर भागने वाले युवा वोकल फाॅर लोकल की थीम पर काम करना चाहते हैं। यही वजह है कि सूबे के युवाओं ने स्थानीय स्तर पर स्वरोजगार की दिशा में पहल करनी शुरू कर दी है। जो कि पहाड़ के लिए सबसे सुखद पहलु है। युवा अब पलायन करने की बजाय स्वरोजगार के नये माध्यमों को अपनाने लगे हैं। अधिकांश युवाओं ने कृषि और पशुपालन को व्यवसाय का स्वरूप देना शुरू कर दिया है। अल्प समय में कम लागत और ज्यादा मुनाफे को देखते हुए वैश्विक महामारी कोविड-19 से महानगरों से गांव लौटे युवाओं को यह कान्सेप्ट खूब रास आ रहा है। लिहाजा पहाड़ में धीरे ही सही लेकिन स्वारोजगार ने रफ्तार पकड़नी शुरू कर दी है। जिसके सूबे में कई जीते-जागते उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। लेकिन सुदूर सीमांत गांव घेस के एक फौजी की किसान बनने की दास्तां बेहद दिलचस्प है। स्वरोजगार को अपनाने वाले इस जवान के बारे में इतना ही कहना है कि सेना के बाद अब खेत में रण‘जीत’।
चमोली (देवाल): घेस से आगे नहीं है देश, यह कहावत घेस गांव के बारे में खूब प्रचलित है। चमोली जनपद के सीमान्त गांवों में से एक। वही घेस जो प्रदेश के जैविक गांवों का सिरमौर और मटर उत्पादन के लिए खासा चर्चित है। इसी गांव के लाडले हैं रणजीत सिंह जेठा। भारतीय सेना के अंग रहे रणजीत युवाओं के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं। पहाड़ के हर बच्चे की तरह रणजीत का भी सपना था कि वह भी अपने बाप-दादाओं की विरासत और पहाड़ की सैन्य परम्परा को आगे बढ़ाये। भारतीय सेना में शामिल होकर युवा रणजीत ने अपने सपनों को पूरा किया। 16 साल देश के विभिन्न हिस्सों में रहकर रणजीत ने सैन्य परम्परा का बखूबी निर्वहन किया। भारतीय सेना में रहते हुए उन्होंने देश की सीमाओं की निगहबानी की और वर्ष 2019 में वह सेना से सेवानिवृत्त हुए। सेना से रिटायर्ड होने के बाद रणजीत सिंह का इरादा कुछ नया करने का था। जिससे आमदनी भी अच्छी हो और लागत भी कम लगे।
एक जवान कैसे बना किसान..?
रणजीत सिंह जेठा बताते हैं कि कैसे वह एक जवान से किसान बने। जेठा कहते हैं कि आम भारतीय जवानों की तरह वह भी सेना से रिटायर्ड हुए और अपने परिवार के पास अपने गांव आये। जब घर आया तो मेरे मन में एक ही विचार था कि एक सैनिक होने के नाते कुछ भी हो खाली नहीं बैठना। काम चाहे छोटा हो या बड़ा बस, अपने सैन्य जीवन की दिनचर्या को बरकरार रखना है। वह कहते हैं कि समय की अहमियत और काम करने का जज्बा हमें फौज में बखूबी सिखाया जाता है, और यही एक भारतीय जवान की जीवन भर की पूंजी होती है। रणजीत कहते हैं कि वह सोचा करते थे कि, मुझे तो देश सेवा और दुश्मन को मारने के अलावा कुछ आता ही नहीं। लेकिन उनके मन में विचार आया कि देश के लिए या तो किसान मेहनत करता है या फिर जवान। ऐसे में उन्होंने तय कर लिया था कि बनना तो अब किसान ही है।
- हाइलाइट्स
- स्वरोजगार की राह पर उत्तराखंड
- एक जवान जब बना किसान
- फौजी ने दिखाई स्वरोजगार की राह
- सीमांत गांव घेस में शुरू किया मशरूम उत्पादन
- मटर और औषधीय कृषि है घेस की पहचान
- मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह कर चुके गांव का दौरा
- रणजीत सिंह जेठा ने की नई पहल
- घेस और देहरादून में शुरू की मशरूम की खेती
- युवाओं को कर रहे स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित
आइडिया के लिए खंगाला यूट्यूब
रणजीत सिंह जेठा कहते हैं कि जब किसान बनने की ठानी तो सामने पहाड की खेती पहाड़ सी नजर आने लगी। उनका मन पारम्परिक खेती के बजाय नगदी खेती करने का था। ऐसे में उन्होंने अपने सैनिक दिमाग को खूब दौड़ाया। सोशल मीडिया खंगाला और यूट्यूब पर रोज नए-नए आइडिया देखे। रणजीत बताते हैं इस बीच उन्होने पाया कि भारतीय बाजार में पिछले 6 वर्षों में मशरूम की मांग कई गुणा बढ़ी है लेकिन आपूर्ति में कोई इजाफा नहीं हुआ। यानी बाजार में मशरूम की मांग तो बढ़ी लेकिन उत्पादन जस का तस बना रहा। यहीं से उन्हें मशरूम की खेती करने का आइडिया मिला।
मशरूम उगाने का लिया प्रशिक्षण
रणजीत को मशरूम की खेती करने का आइडिया तो मिला लेकिन वह इसकी खेती की विधा से पूरी तरह अंजान थे। वह कहते हैं कि उन्होंने इसकी खेती के लिए प्रशिक्षण लिया। इसके लिए उन्होंने उत्तराखंड की ब्रांड एम्बेसडर और मशरूम गर्ल के नाम से प्रसिद्ध दिव्या रावत के प्रशिक्षण केंद्र से संपर्क किया। जहां उन्होंने मशरूम की खेती का प्रशिक्षण लिया। वह कहते हैं कि बचपन में गांव में ग्रामीण महिलाएं जंगल से मशरूम (जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘च्यूं’ कहते हैं) लाया करते थे, वो विशुद्ध जंगली हुआ करते थे। लेकिन प्रशिक्षण के बाद मैंने पाया हम एक निश्चित तापमान पर घरों में भी मशरूम की खेती आसानी से कर सकते हैं।
शुरू की मशरूम की खेती
रणजीत बताते हैं कि उनका मानना था वह जो भी काम शुरू करेंगे, उसमें लागत कम और मुनाफा ज्यादा हो। वह कहते हैं कि मशरूम में रिस्क कम और मेहनत ज्यादा है। जो उनके अनुकूल है। वह कहते हैं कि मशरूम की खेती में सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसकी खेती कम लागत में छोटी सी जगह पर आसानी से शुरू की जा सकती है। साथ ही इसमें लागत की तुलना में मुनाफा कई गुना ज्यादा है। प्रशिक्षण के बाद उन्होेने अपने गांव घेस में मशरूम की खेती शुरू की। जिसके बहुत बढ़िया परिणाम आये। गांव में समय पर मशरूम की फसल तैयार हुई। इससे उनका साहस बढ़ गया। जेठा कहते हैं कि वह गांव में बड़े पैमाने पर मशरूम की खेती करेंगे। वह बताते हैं कि उन्होंने देहरादून के शिमला बाईपास में भी 180 गज जमीन पर मशरूम फार्म खोल दिया है। जिसमें मौसम के अनुरूप मशरूम का उत्पादन होता है। जेठा कहते हैं कि मशरूम की पहली खेती उन्होंने जून 2020 में शुरू की और एक महीने में उन्हेंने 20 हजार का मुनाफा कमाया।
गांव में देंगे प्रशिक्षण
जवान से किसान बने रणजीत कहते हैं कि मशरूम की खेती का आइडिया उनके लिए वरदान साबित हो रहा है। वह कहते हैं कि गांव में मशरूम की खेती की आपार संभावनएं हैं। क्योंकि वहां तापमान खेती के अनुकूल है। वह कहते हैं कि स्थानीय युवाओं को स्वरोजगार से जोड़ने के लिए वह अपने व आस-पास के गांव के लोगों को भी मशरूम की खेती का प्रशिक्षण देंगे। ताकि ग्रामीण युवा रोजगार की खातिर महानगरों में जाने की बजाय खुद का व्यवसाय शुरू कर सके। वह कहते हैं कि हमें अपने स्थानीय उत्पादों की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
लेखक के बारे मेंः
उमेश भंडारी युवा पत्रकार और शोधार्थी हैं। चमोली जनपद के सीमांत गांव घेस के बाशिंदे है, वर्तमान में देहरादून में रहते है। पहाड़, पर्यावरण, ग्रामीण समाज, पंचायतीराज और समसामयिक मुद्दों पर लिखते हैं।