भारत में बेरोजगारी एक गंभीर समस्या बनती जा रही है। इसमें छिपी हुई बेरोजगारी की स्थिति तो और भी ज्यादा चिंताजनक है। रोजगार पर अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की ताजा रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत में 15 प्रतिशत से ज्यादा ग्रैजुएट बेरोजगार हैं। यही नहीं, 25 साल से कम उम्र के ग्रैजुएटों के बीच बेरोजगारी दर 42 प्रतिशत है। हाल ही में जारी की गई अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2023’ रिपोर्ट ने भारत में रोजगार को लेकर चिंताजनक तस्वीर पेश की है। रिपोर्ट के मुताबिक 2019 के बाद से भारत में नियमित वेतन की नौकरियों के सृजन की रफ्तार कम हुई है।
कोविड-19 महामारी को ठहराया जिम्मेदार
रिपोर्ट ने इसके लिए अर्थव्यवस्था में आई मंदी और कोविड-19 महामारी को जिम्मेदार ठहराया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि महामारी के बाद की बेरोजगारी दर महामारी से पहले की दर से कम है, लेकिन ग्रैजुएशन और उससे ऊपर की शिक्षा हासिल कर चुके लोगों में 15 प्रतिशत से ज्यादा लोग बेरोजगार हैं।
युवा ग्रैजुएटों में बेरोजगारी दर और ज्यादा
युवा ग्रैजुएटों में यह दर और ज्यादा है। 25 साल से कम के ग्रैजुएटों में 42 प्रतिशत बेरोजगार हैं। ज्यादा उम्र के और कम पढ़े-लिखे लोगों में बेरोजगारी दर सिर्फ दो से तीन प्रतिशत के बीच है. 25 से 29 साल के ग्रैजुएटों में 22.8 प्रतिशत, 30 से 34 साल के ग्रैजुएटों में 9.8 प्रतिशत, 35 से 39 साल के ग्रैजुएटों में 4.5 प्रतिशत और 40 साल से ज्यादा के ग्रैजुएटों में 1.6 प्रतिशत बेरोजगार हैं। रिपोर्ट कहती है कि इसका मतलब है ग्रैजुएट लोगों को बाद में नौकरियां मिल रही हैं, लेकिन उसके बाद सवाल यह उठता है कि यह किस तरह की नौकरियां हैं और यह उनके कौशल और आकांक्षाओं से मेल खाती हैं या नहीं। रिपोर्ट कहती है कि इन सवालों पर और रिसर्च करने की जरूरत है।
महिलाएं अभी भी रोजगार से दूर
महिलाओं में रोजगार की दर 2004 के बाद से या तो रुकी हुई रही या गिर गई। लेकिन 2019 के बाद से यह दर बढ़ी है, लेकिन इसमें एक पेंच है। रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं के बीच आर्थिक दबाव की वजह से स्वरोजगार बढ़ा है। कोविड-19 से पहले 50 प्रतिशत महिलाएं स्वरोजगार में थीं, लेकिन महामारी के बाद यह संख्या बढ़ कर 60 प्रतिशत हो गई। इसका मतलब है कि नियमित वेतन नौकरी की जगह महिलाओं के बीच स्वरोजगार बढ़ा और इस वजह से उनकी कमाई घट गई। इसके अलावा महिलाओं और रोजगार के बीच के रिश्ते पर कई और कारक हावी हैं। जैसे रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन परिवारों में सास मौजूद नहीं है उनके मुकाबले वो परिवार जिनमें सास है लेकिन बाहर काम नहीं करती है, उन परिवारों में बहू के किसी नौकरी में लगे होने की संभावना 20 से 30 प्रतिशत कम है।
वेतन असमानता में गिरावट
हालांकि महिलाओं के लिए अच्छी खबर यह है कि उनके और पुरुषों के बीच वेतन की असमानता में 18 सालों में थोड़ी सी गिरावट आई है। जहां 2004 में वेतनभोगी महिलाएं पुरुषों की कमाई का 70 प्रतिशत कमा रही थीं, वहीं 2017 तक संख्या 76 प्रतिशत हो गई थी। हालांकि उसके बाद से यह संख्या वहीं अटकी हुई है और इसमें कोई बदलाव नहीं आया है।
दलितों को मिला रोजगार, स्थिति निराशाजनक
रिपोर्ट कहती है कि 2011 से 2022 के बीच में नियमित वेतन पाने वाले दलित श्रमिकों की संख्या बढ़ी है, लेकिन दूसरी जातियों के श्रमिकों के मुकाबले दलित श्रमिक कैजुअल नौकरियों में ज्यादा हैं। 2021-22 में करीब 22 प्रतिशत दलित श्रमिक नियमित वेतन पा रहे थे, जबकि दूसरी जातियों के 32 प्रतिशत श्रमिक नियमित वेतन पा रहे थे. लेकिन दलित श्रमिकों में से 40 प्रतिशत कैजुल नौकरियां कर रहे थे, जबकि दूसरी जातियों के श्रमिकों में सिर्फ 13 प्रतिशत कैजुअल नौकरियां कर रहे थे।