डा.वीरेंद्र बर्त्वाल
टिहरी गढ़वाल का यह जखोली गांव हर दृष्टि से समृद्ध है। यहां की जमीन सोना उगलती है। आम, टमाटर, अरबी न जाने क्या-क्या फल-सब्जियां और अनाज यहां प्रचुर मात्रा में होते हैं। क्वीली-पालकोट क्षेत्र के इस गांव में कदम-कदम पर पानी के धारे, नौले और बौले हैं। जमीन बहुत अधिक ढालदार नहीं है। पलायन बहुत कम है। तीन-चार आईएएस के साथ ही कई पीसीएस इस गांव ने देश को दिए हैं। शिक्षक तो इतने हैं, जितने 50 साल की उम्र में सिर पर सफेद बाल दिखाई देते हैं।
जखोली गांव का भूगोल जितना आकर्षित करता है, इसका इतिहास भी उतना ही गौरवशाली है। क्वीली पट्टी गढ़वाल में प्रसिद्ध है। क्वीली कभी एक गढ़ (छोटा राज्य) रहा है। बिजल्वाण और सजवाण यहां की दो प्रमुख जातियां हैं। बिजल्वाण सरोला के रूप में उच्च ब्राह्मण हैं तो सजवाण बड़े ठाकुर (थोकदार) हैं। इतना होने के बावजूद दोनों जाति के लोगों में सामाजिक एकता फेविकोल के जोड़ की तरह मजबूत है।
वैसे पहाड़ में कहीं बिजल्वाण और सजवाण मिल जाएं तो प्रायः यही समझा जाता है कि वे क्वीली के ही होंगे। जैसे हम अच्छा पेठा खाने के बाद अनुमान लगा लेते हैं कि यह आगरा का ही होगा। वैसे समाज में एक जनश्रुति यह भी है कि सदियों पहले इस क्षेत्र में सज्जू और बिज्जू दो सगे भाई थे। कालांतर में सज्जू का वंश सजवाण और बिज्जू का वंश बिजल्वाण के रूप में विस्तारित हुआ। खैर, इस जनश्रुति की कोई पुष्ट जानकारी न होने के कारण इसकी सच्चाई पर ऐसा विश्वास नहीं किया जा सकता है, जैसे पानी को केवल देखने मात्र से उसके गर्म-ठंडे का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
बताते हैं कि देवप्रयाग के पूर्व विधायक शूरवीर सिंह सजवाण ने एक बार विधानसभा चुनाव में ठाकुर-ब्राह्मण का पांसा फेंका, परंतु वे इसमें पराजित हो गए। क्षेत्र के ठाकुर मतदाताओं ने सवाल उठाया कि शूरवीर सिंह सजवाण ठाकुरों में भी बड़े ठाकुर और छोटे ठाकुर का भेद करते हैं। खुद को थोकदार मानने वाले बड़े ठाकुरों की संख्या इस विधानसभा क्षेत्र में कुल ठाकुरों की संख्या का लगभग 5 फीसद ही है। इसलिए शूरवीर सिंह सजवाण का यह दांव उल्टा पड़ गया।
बहरहाल, मैंने कल जखोली के आमों का जी भरकर आनंद लिया। जीवन में पहली बार पेड़ हिलाकर गिरे इतने आम खाए होंगे। आम के ये वृक्ष हमारे मित्र और प्राध्यापक साथी अवधेश बिजल्वाण के घर के आंगन में हैं। हर पांच मिनट बाद पेड़ से ‘फत’ सा एक दाना गिरकर टूटता है तो मन में खुशी होती है। पेड़ों के नीचे तीन घंटे बाद चक्कर मारने पर तीन किलो के लगभग आम मिल जाते हैं। टपके आम सेहत के लिहाज से बेहतरीन होते हैं। आमों को टपककर देखना मेरे लिए ऐसा कौतूहल रहा, जैसे समुद्र प्रदेश का वासी हिमालय को करीब से देखता है, क्योंकि मेरा गांव मसूरी जैसी ऊंचाई पर है और ऊंचाई पर आम नहीं होते।
हां, एक बात लिखना भूल गया। पहाड़ में जखोली नाम से अन्य भी गांव हैं। इसलिए यह न समझें कि अपनी फेसबुक पोस्टों मैं जिस जसू की बात करता हूं, वह इसी जखोली गांव का है।
लेखक के बारे में- डाॅ. विरेंद्र बर्त्वाल उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और शिक्षक हैं। करीब डेढ़ दशक तक हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय रहे डाॅ. बर्त्वाल वर्तमान में केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के देवप्रयाग परिसर में असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर कार्यरत हैं। टिहरी बडियार गढ़ के मूल निवासी डाॅ. बर्त्वाल ने विभिन्न विषयों पर कई पुस्तकें लिखी। उनकी पुस्तक ‘गढ़वाली गाथाओं में लोक और देवता’ खासी चर्चित रही।