उत्तराखंड में महा आंदोलन कल, मूल निवास और स्थायी निवास के पीछे समझे हर पहलू

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पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में मूल निवास और भूमि कानूनों और भूमि की बिक्री का मुद्दा हाल ही में जनता के बीच गरमा गया है। पहाड़ से जुड़े इस महत्वपूर्ण मुद्दे को लेकर 24 दिसंबर को राजधानी देहरादून में भू कानून और मूल निवास स्वाभिमान रैली आयोजित की जा रही है। उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी ने खुद लोगों को इस रैली का हिस्सा बनने का निमंत्रण दिया है। विधानसभा चुनाव के दौरान युवाओं ने सशक्त भू कानून और मूल निवास की मांग जोरशोर से उठाई थी। अब लोकसभा चुनाव से पहले यह मुद्दा फिर जोर पकड़ने लगा है। 24 दिसंबर को होने वाली रैली को लेकर प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने भी वीडियो संदेश जारी कर अपनी बात कही है। उनके साथ ही कई अन्य हस्तियां सोशल मीडिया के जरिये मूल निवास स्वाभिमान रैली के समर्थन में प्रचार अभियान चलाए हुए हैं।

मूल निवास और स्थायी निवास के पीछे समझे हर पहलू

हर कोई मूल निवास और स्थायी निवास के पक्ष में अपनी-अपनी दलीलें दे रहा है, लेकिन मूल निवास और स्थायी निवास के पीछे तकनीकी पहलू क्या है और कानूनी जानकार इसके बारे में क्या कहते हैं, यह भी जानना जरूरी है। उल्लेखनीय है कि भारत में आजादी के बाद अधिवासन को लेकर 8 अगस्त 1950 और 6 सितंबर 1950 को राष्ट्रपति के माध्यम से ‘प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन’ जारी हुआ था और इसे वर्ष 1961 में गजट नोटिफिकेशन के तहत प्रकाशित किया गया था। इसमें भारत के अधिवासन को लेकर कहा गया था कि वर्ष 1950 से जो व्यक्ति देश के जिस राज्य में मौजूद है, वह वहीं का मूल निवासी होगा। इस नोटिफिकेशन में साफ तौर से मूल निवास की परिभाषा को परिभाषित किया गया था। साथ ही मूल निवास की अवधारणा को लेकर भी स्पष्ट व्याख्यान किया गया था इसके बावजूद देश में मूल निवास को लेकर पहली बहस साल 1977 में हुई, जब 1961 में महाराष्ट्र और गुजरात राज्य का विभाजन हुआ और यहां पर मराठा संप्रदाय ने मूल निवास को लेकर पहली बार सर्वोच्च न्यायालय में बहस की। इसके बाद देश के सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ यानी आठ न्यायाधीशों की पीठ ने अपने फैसले में राष्ट्रपति के वर्ष 1950 के नोटिफिकेशन को मूल निवास के लिए देश के हर एक राज्य में बाध्य किया। साथ ही 1950 के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को बाध्य मानते हुए मूल निवास की सीमा को 1950 ही रखा।

उत्तराखंड में  प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन लागू नहीं 

लेकिन बिडंबना है कि उत्तराखंड में न प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन यानी देश के राष्ट्रपति की ओर से जारी अधिसूचना लागू है और न ही देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाई गयी मुहर ही। बल्कि यहां 1950 की जगह राज्य बनने के दिन यानी 9 नवंबर 2000 के दिन को मूल निवास के रूप में माना गया। गौरतलब है कि वर्ष 2000 में देश के तीन नए राज्यों-उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ का गठन हुआ। इन तीन नए राज्यों में से उत्तराखंड के अलावा शेष दोनों राज्यों झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य ने मूल निवास को लेकर के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को मान्य मानते हुए 1950 को ही मूल निवास रखा, लेकिन उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी के नेतृत्व वाली भाजपा की अंतरिम सरकार ने मूल निवास के साथ स्थायी निवास की व्यवस्था कर दी।

स्थायी निवास की व्यवस्था

इसके तहत 15 साल पूर्व से उत्तराखंड में रहने वालों के लिए स्थायी निवास की व्यवस्था कर दी गई, और मूल निवास के साथ स्थायी निवास को अनिवार्य किया गया। आगे वर्ष 2010 में जब उत्तराखंड में भाजपा की सरकार थी, उस समय उत्तराखंड उच्च न्यायालय में ‘नैना सैनी बनाम उत्तराखंड राज्य,  और देश के सर्वोच्च न्यायालय में ‘प्रदीप जैन विरुद्ध यूनियन ऑफ इंडिया दो अलग-अलग याचिकाएं दायर की गईं।
इन दोनों याचिकाओं में एक ही विषय रखा गया था, जिसमें उत्तराखंड में राज्य गठन के समय निवास करने वाले व्यक्ति को मूल निवासी के रूप में मान्यता देने की मांग की गई थी, लेकिन इन दोनों याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय और उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने एक ही फैसला दिया। जोकि 1950 के प्रेसिडेंशियल नोटिफिकेशन के पक्ष में था। जहां पर याचिकाकर्ताओं को सफलता हासिल नहीं हुई और उत्तराखंड में 1950 का मूल निवास लागू रहा।

राज्य गठन से रहने वाले मूल निवासी 

लेकिन वर्ष 2012 में उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार आई और इसी दौरान ही तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के शासन काल में मूल निवास और स्थायी निवास को लेकर वास्तविक खेल हुआ। 17 अगस्त 2012 को उत्तराखंड उच्च न्यायालय में एक याचिका की सुनवाई हुई। जिसमें उत्तराखंड उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने फैसला दिया कि 9 नवंबर 2000 के दिन से राज्य में निवास करने वाले व्यक्तियों को मूल निवासी माना जाएगा।

प्रेसिडेंशियल नोटिफिकेशन का उल्लंघन

यह उत्तराखंड राज्य पुनर्गठन अधिनियम 2000 की धारा 24 और 25 के अधिनियम 5 और 6 अनुसूची के साथ 1950 में लागू हुए प्रेसिडेंशियल नोटिफिकेशन का उल्लंघन था, इसके बावजूद भी सरकार ने एकल पीठ के इस फैसले को चुनौती न देते हुए स्वीकार कर लिया। साथ ही सरकार ने वर्ष 2012 के बाद से मूल निवास प्रमाण पत्र बनाने की व्यवस्था भी बंद कर दी। तब से उत्तराखंड में केवल स्थायी निवास की व्यवस्था ही लागू है।

प्रमाण पत्र धारकों से स्थायी निवासी प्रमाण पत्र न मांगने का आदेश

इसके बाद से राज्य में मूल निवास प्रमाण पत्र के बावजदू स्थायी निवास प्रमाण पत्र मांगे जा रहे थे, लेकिन इधर राज्य में मूल निवास व स्थायी निवास के मुद्दे के तूल पकड़ने के बाद धामी सरकार ने मूल निवास प्रमाण पत्र धारकों से स्थायी निवासी प्रमाण पत्र न मांगने का आदेश जारी किया है। आगे देखना होगा कि इस संबंध में बन रहे जनदबाव के बाद राज्य की धामी सरकार इस मुद्दे पर आगे कहां तक जाती है।

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