कुमाऊं रेजीमेंट के दो शूरवीरों के नाम पर अंडमान-निकोबार के द्वीप, पढ़ें इनकी वीरगाथा

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नेताजी सुभाष चंद्र बोस जयंती 23 जनवरी को हर साल ‘पराक्रम दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। आज पराक्रम दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंडमान और निकोबार के 21 बड़े अनाम द्वीपों का नाम परमवीर चक्र विजेताओं के नाम पर रखा गया है। जिनमें कुमाऊं रेजीमेंट के दो जांबाज सैन्यन अफसरों ने नाम भी शामिल हैं।

                                      विजेता मेजर सोमनाथ

आजाद भारत के पहले परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा

कुमाऊं रेजीमेंट के मेजर सोमनाथ शर्मा आजाद भारत के पहले परमवीर चक्र विजेता रहे। मेजर सोमनाथ शर्मा देश के वो शूरवीर है जिसका नाम भारत के इतिहास में उनके कारनामे के लिए लिखा गया, जिनका नाम जोश और कुर्बानी का पर्याय बन गया। मेजर सोमनाथ शर्मा कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी में कमांडर के पद पर तैनात थे। हिमाचल प्रदेश में जन्मे जांबाज सोमनाथ का उत्तराखंड से गहरा नाता रहा।

बचपन से था देश सेवा का जुनून

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के एक छोटे से गांव डाढ़ में मेजर जनरल एएन शर्मा के घर 31 जनवरी, 1923 को जन्मे मेजर सोमनाथ की शुरूआती पढ़ाई गांव में हुई, फिर नैनीताल के शैखुंड कॉलेज से हुई। परिवार में बचपन से ही देश सेवा और सैन्य पृष्ठभूमि का माहौल देखने के कारण वीरता, साहस एवं बलिदान के गुण सोमनाथ को उनकी परवरिश के दौरान ही मिले।

हाथ की टूटी हड्डी, बाजू में प्लास्टर बांधे पहुंच गए कश्मीर

सोमनाथ ने जैसे ही अपना कॉलेज पूरा किया उसके तुरंत बाद ही वो प्रिंस ऑफ वेल्स रॉयल इंडियन मिलिट्री कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन का हिस्सा बन गए और सेना में सेवाएं देनी शुरू कर दी। द्वितीय विश्व युद्ध में मेजर सोमनाथ ने मोर्चा संभाला और अपने जोश और जज्बे से हर किसी को चौंकाया। एक किस्सा है जब सेना की तरफ से 26 अक्टूबर 1947 को मेजर सोमनाथ की कंपनी को कश्मीर जाने के आदेश मिले उस दौरान मेजर के बाएं हाथ की हड्डी टूटी हुई थी और उनके बाजू में प्लास्टर चढ़ा हुआ था, लेकिन आदेश मिलते ही मेजर ने जाने की जिद्द कर ली और अपने साथियों से जाने की पुरजोर अपील की। उनका मानना था कि देश सेवा से आगे कुछ भी नहीं होता है।

 

जब 700 सैनिकों से अकेले भिड़ गया

मेजर सोमनाथ के नेतृत्व में 100 सैनिकों ने बड़गांव में अपनी चौकी बना रखी थी। इसी दौरान उनकी टुकड़ी पर 700 पाक सैनिकों ने हमला बोल दिया। मेजर सोमनाथ ने मोर्चा संभाला और लगातार 6 घंटे तक सैनिकों को मुंहतोड़ जवाब दिया।

लड़ते-लड़ते वीरगती को हुए प्राप्त

श्रीनगर में युद्ध भूमि से महज 15 किलोमीटर दूर बड़गांव से वो सेना के ऑपरेशन को ऑपरेट कर रहे थे। बाजू पर प्लास्टर चढ़ा होने के बावजूद वो सैनिकों को मैगजीन में गोला बारूद भरते हुए लड़ने के लिए प्रेरित कर रहे थे। लेकिन युद्ध के दौरान अचानक दुश्मन का एक गोला मेजर सोमनाथ शर्मा के पास रखे बारूद के ढेर में आकर गिरा और 3 नवंबर, 1947 को लड़ते-लड़ते ही मेजर ने मौत को गले लगा लिया। अपने काम और साहस की बदौलत मेजर सोमनाथ शर्मा को आजाद भारत का पहला सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र दिया गया।

24 साल की उम्र में बन गए अमर बलिदानी

उन्होंने महज 24 साल की उम्र में मातृभूमि की आन, बान व शान की रक्षा करते हुए सर्वोच्च बलिदान दिया। रानीखेत का ऐतिहासिक सोमनाथ मैदान कुमाऊं रेजीमेंट के इसी जांबाज फौजी अफसर के नाम पर है। अब देश के एक द्वीप का नाम मेजर सोमनाथ शर्मा के नाम पर रखा गया है।

 

            मेजर शैतान सिंह

जांबाज मेजर शैतान सिंह के नाम पर भी एक द्वीप

इसके साथ ही कुमाऊं रेजीमेंट के एक और परमवीर चक्र विजेता मेजर शैतान सिंह की याद में भी द्वीप का नाम रखा गया है। 13 कुमाऊं के इस जांबाज ने 1962 की जंग में अदम्य साहस का परिचय देते हुए रेजांगला में मोर्चा संभाला था। अपनी टुकड़ी के साथ खुद के दम पर 1300 चीनी सैनिकों को मार गिराया था। कहा जाता है कि मशीनगन को रस्सी से पैरों में बांधकर इस वीर सपूत ने दुश्मन सेना से लोहा लिया।

पिता से विरासत में मिली बहादुरी और देशप्रेम का जज्बा

जोधरपुर (राजस्थान) में एक दिसंबर 1924 को जन्मे शैतान सिंह के पिता हेम सिंह भाटी भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल थे। पिता से विरासत में मिली बहादुरी और देशप्रेम का जज्बा ही था कि जोधरपुर स्टेट फोर्स के इस जांबाज ने एक अगस्त 1949 में कुमाऊं रेजीमेंट में तैनाती ली। 1962 में शैतान सिंह पदोन्नत होकर मेजर नियुक्त किए गए।

शैतान सिंह के सामने भीगी बिल्ली बना था ड्रैगन

नियुक्ति के कुछ ही दिनों बाद 18 नवंबर को भारत और चीन में जंग छिड़ गई थी। लद्दाख की चुशुल घाटी में मेजर शैतान सिंह 13 कुमाऊं रेजीमेंट के लगभग 120 जवनों की टुकड़ी की अगुवाई कर रहे थे। सुबह के चार बज रहे थे और चीनी सेना के करीब 2000 जवानों ने भारतीय सैनिकों की टुकड़ी पर हमला कर दिया। ठंड की मार और दुश्मनों की तरफ से शुरू हुई गोलियों की बौछार का सामना भारतीय सेना ने बड़ी बहादुरी से किया। कम हथियारों को देखते हुए रणनीति बनाई गई कि जब चीनी सैनिक फायरिंग रेंज में आएं, तभी उन पर गोली दागी जाए। मेजर सिंह ने जवानों को बताया कि एक फायरिंग में एक चीनी सैनिक को मार गिराओ। इस रणनीति पर काम करते हुए भारतीय सेना ने चीनी पक्ष को खदेड़ दिया और उस समय तक सभी भारतीय सैनिक सुरक्षित थे।

पैरों में बंदूक बांधकर लड़े और शान से शहीद हो गए

करीब 18 घंटों तक चली इस जंग में भारतीय सेना के 114 जवान शहीद हुए। गोलीबारी के दौरान पलटन ने संदेश दिया कि चीनी पक्ष को खदेड़ दिया गया है। हालांकि, कुछ देर बाद ही चीनी सेना ने गोला दाग दिया। इस दौरान हुई जमकर गोलीबारी और बमबारी में भारतीय सेना के तीन बंकर तबाह हुए। बमबारी में ही मेजर सिंह के हाथ में शेल का टुकड़ा आकर लग गया और वो घायल हो गए। साथी जवानों के समझाने के बावजूद वो लड़ते रहे। उन्होंने मशीन गन मंगाकर उसके ट्रिगर को पैर पर बंधवाया। अब घायल मेजर पैरों की मदद से दुश्मनों पर गोलियां बरसा रहे थे। हालांकि, तब तक काफी खून बहने के चलते उनकी हालत बिगड़ती गई। आखिर में अपना सर्वोच्च बलिदान देकर हमेशा के लिए अमर हो गए।

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