दुर्गम हिमालयी क्षेत्र में प्रत्येक बारह साल के अंतराल पर आयोजित होने वाली नंदा देवी राजजात यात्रा हर किसी के जेहन में हैं। कम ही लोग जानते हैं कि यह हिमालयी यात्रा प्रत्येक वर्ष विधि-विधान से आयोजित होती है। प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली नंदा की विदाई का यह लोकउत्सव नंदादेवी लोकजात के रूप में प्रतिस्थापित है। वास्तव में यह लोक उत्सव प्रकृति को करीब से समझने और पर्यावरण संरक्षण का एक परंपरागत आयोजन है। हिमालय के रूप में शिव और जनमानस के बीच नंदा को जोड़कर प्रकृति संरक्षण के प्रति एकीकरण के भाव हममें पर्यावरण के प्रति चेतना जाग्रत करते हैं। दुगर्म हिमालय में आयोजित होने वाली यह यात्रा सदियों से चली आ रही है। नंदादेवी लोकजात यात्रा और उसके पड़ावों के बारे में पढ़िये डाॅ. कृपाल सिंह भंडारी का यह आलेख।
डाॅ. कृपाल सिंह भंडारी
उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक व धार्मिक मान्यताओं का एक समृद्ध इतिहास रहा है। इन धार्मिक मान्यताओं व आस्थाओं को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करने में अनेक धार्मिक आयोजनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जिसमें कुम्भ पर्व की तरह बारह या उससे अधिक वर्षो बाद आयोजित होने वाली ‘नंदादेवी राजजात यात्रा’ व प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली ‘बधाण की नंदा देवी लोकजात यात्रा’ का विशिष्ट धार्मिक महत्व है।
राजजात के वर्ष यानी प्रत्येक बारह वर्ष में बधाण की माॅं नन्दा की डोली ही सम्पूर्ण जात की अगवानी करती है। बधाण की नन्दा देवी का जनपद चमोली के एक बड़े क्षेत्र में अपना प्रमुख स्थान है। प्रत्येक वर्ष आयोजित होने वाली लोकजात यात्रा के आयोजन के तहत बधाण की उत्सव डोली जनपद चमोली में विकासखण्ड घाट के सिद्धपीठ कुरुड़ धाम से विकासखण्ड देवाल के वेदनी बुग्याल में स्थित वेदनी कुण्ड में पूजा-अर्चना के पश्चात वापस देवराड़ा आती है और छः माह देवराड़ा में ही रहती है। उसके बाद पुनः कुरुड़ रवाना होती है। बधाण की नन्दा का कुरुड़ क्षेत्र को मायका व देवराड़ा जिसे बधाण क्षेत्र भी कहा जाता है, को ससुराल माना जाता है।
लोकजात यात्रा का आयोजन नंदादेवी लोकजात समिति कुरुड़ द्वारा किया जाता है। यात्रा का शुभारम्भ जन्माष्टमी के दिन से आयोजित होने वाले दो दिवसीय कुरुड़ मेले से होता है। मेले के समापन के साथ ही देव डोलियाँ कैलाश के लिए रवाना होती हैं। इसमें कुरुड़ की नन्दा डोली कुरुड़ से विभिन्न पड़ावों से होते हुए रामणी गाॅव के बुग्याल बालपाटा में सम्पन्न होती है और वापस कुरुड़ लौट जाती है। बधाण की माँ नन्दा लोकजात का आयोजन कुरुड़ लोकजात समिति द्वारा ही किया जाता है। इस यात्रा का समापन वेदनी में दो दिवसीय भव्य रूपकुण्ड महोत्सव के साथ होता है। इस वर्ष यह यात्रा कोरोना के चलते सूक्ष्म रूप में आयोजित होगी। जिला प्रशासन द्वारा नियमानुसार सीमित संख्या में लोगों को प्रतिभाग की अनुमति दी है।
लोकजात यात्रा में माँ नंदा की डोली की यात्रा अकेले ही होती है। लोकमान्यता के अनुसार 11वीं शदाब्दी में गढ़वाल नरेश ने नन्दा को कुलदेवी के रूप में बधाणगढ़ी में मूर्ति की स्थापना की। कुमाऊं के चन्द राजा बाद में बधाण व अन्य गढ़ियों को जीतकर नन्दा की मूर्ति एवं शिलापट अपने साथ ले गये। इससे जनमानस काफी आहत हुआ, तब बधाण के चैदह सयानों ने निर्णय लिया कि एक सिद्धपीठ बधाण और एक नंदाक में स्थापित होगा और प्रतिवर्ष नंदा की सिद्धपीठ कुरुड़ से कैलाश यात्रा चलेगी।
इसी लोक परम्परा का निर्वहन आज भी चलता आ रहा है। कुरुड़ के गौड़ ब्राहमणों को बधाण की नन्दा के पारंपरिक पुजारी होने का गौरव प्राप्त है। इस वर्ष आयोजित बधाण की नंदा लोकजात में माँ नन्दा की उत्सव डोली आज यानी 14 अगस्त को सिद्धपीठ कुरुड़ से कैलाश यात्रा के लिए रवाना होगी। 15 अगस्त को उस्तोली, 16 को भेटीं, 17 को थराली विकासखण्ड में प्रवेश कर डुंग्री गांव पहुचेगी, 18 को सूना, 19 अगस्त को चेपड़ों, 20 को धरामल्ला, 21 को फल्दिया गाँव, लोकजात 22 अगस्त को मुन्दोली पहुंचेगी इसके बाद 23 को वाण, 24 को गैरोली पातल व 25 अगस्त को वेदनी कुण्ड पहुंचेगी। जहां पूजा-अर्चना कर यात्रा वित्सर्जित की जायेगी और लोग वापस देवराड़ा लौटेंगे।
नंदा देवी राजजातः गढ़-कुमाऊं की साझा विरासत
कुमाऊं के चंद राजवंश के शासक बाज बहादुर चंद द्वारा मुगल शासक शाहजहां के समर्थन से 1638 ईस्वी में गढ़वाल की पंवार वंश के शासक पृथ्वीपति शाह को परास्त कर बधाण क्षेत्र से जोकि गढ़वाल एवं कुमाऊं के मध्य में स्थित है से विजय के प्रतीक स्वरूप नंदा देवी की मूर्ति को कुमाऊं ले गया और इसे अपनी कुलदेवी के रूप में पूजा एवं आराधना की, बाद में इसी वंश के महान शासक ज्ञानचंद द्वितीय ने अल्मोड़ा में नंदा देवी का मंदिर बनाया और यहां मूर्ति स्थापित की जो आज भी इस ऐतिहासिक पल को सजो समाए हुए तब से आज तक कुमाऊं और गढ़वाल में मां नंदा देवी की पूजा अर्चना की जाती है।
यात्रा के आयोजन का उपलक्ष्य
सती होने के उपरांत हिमालय क्षेत्र के राजा हेमंत और उसकी पत्नी मैनावती के घर नंदा के रूप में सती का पुनर्जन्म हुआ। इसकी बाल्यावस्था से ही शिव भक्ति में आसक्ति रहती थी और इसी कारण नंदा अन्न त्याग कर, पत्ते खाकर जीवन यापन करने लगी। यही कारण था कि नंदा को ‘पाखंडेश्वरी’ नाम से पुकारा जाने लगा। आगे चलकर नंदा ने अन्न जल त्याग दिया और उनका नाम ‘अपर्णा’ भी कहा गया। कालानंतर में नंदा अष्टमी के दिन नंदा का विवाह शिव के साथ हुआ। शुरूआत में नंदा कैलाश के वातावरण में आनंदित रही। लेकिन धीरे-धीरे उसे मायके की याद सताने लगी। 12 वर्षों तक नंदा के मायके वालों ने उसे कोई निमंत्रण नहीं भेजा। जिस कारण नंदा नाराज हुई।
नंदा के रूष्ट होने से हेमंत के राज्य में अकाल और विद्रोह जैसे संकट पैदा होने लगे। तब हिमालयी राज को अपने नंदा की याद आई और उन्होंने नंदा को मायके बुलाया। नंदा के मायके आने पर राज्य में सब सामान्य हो गया। नंदा कुछ समय तक मायके रही। फिर वापस अपने ससुराल कैलाश धाम आ गई। तब से निरंतर नंदा के कैलाश जाने पर यह यात्रा आयोजित की जाती है। नंदा को हिमालयी लोग अपनी ध्याण यानी बहन मानते हैं। पहाड़ में आज भी रिवाज है कि जब बेटी अपनी सुसराल जाती है तो मायके वाले उसे हंसी-खुशी ससुराल पहंचाते हैं।
लेखक के बारे में- डाॅ. कृपाल सिंह भंडारी पेशे से शिक्षक हैं। शोधकार्यों में संलग्न रहने वाले डाॅ. भंडारी के अनेक शोध पत्रों का प्रकाशन राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर के शोध पत्रों में होता रहा है। वह मूलतः चमोली के हैं और लेखन में अभिरूचि रखते हैं। उनकी पुस्तक ‘उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासतः श्री नंदादेवी राजजात’ शोधार्थियों के लिए खासी उपयोगी है। डाॅ. भंडारी हिमालयन जन विकास समिति के सचिव भी रहे।