अतीत के पन्नेः सौ साल पहले जब एक महामारी ने गढ़वाल में ढ़ाया था कहर

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महिपाल नेगी

दुनियां भर में कोरोना वायरस ने भयानक महामारी का रूख अख्तियार कर लिया है। भारत में भी इसके अब तक सैकड़ों केस आ चुके हैं, कुछ संक्रमितों की मौत भी हुई है। ऐसे में इस वायरस का संक्रमण और न फैले इसके लिए सरकार ने 25 मार्च से पूरे भारत को 21 दिन के लिए बंद कर दिया है। इस महामारी ने उत्तराखण्ड के गढ़वाल इलाके में करीब एक शताब्दी पहले आई महामारी की डरावनी यादें ताजा कर दी हैं। क्या थी वो महामारी, पढ़िएगा इतिहासकार महिपाल नेगी का बेहतरीन जानकारी वाला यह लेख।

यह एक संक्रामक फ्ल्यू था जिससे भारत में मरे थे तब लाखों लोग। देहरादून गजेटियर के मुताबिक तब देहरादून में 4 साल के भीतर 18,629 लोग इनफ्लुएंजा (तीव्र ज्वर) से मरे। तीस हजार का आंकड़ा देहरादून से अलग गढ़वाल के पर्वतीय क्षेत्र का है। तब टिहरी रियासत में जनसंख्या वृद्धि दर घटकर आधी रह गई थी। टिहरी और उत्तरकाशी में करीब 17,000 तो ब्रिटिश गढ़वाल (आज के पौड़ी, रुद्रप्रयाग, चमोली जिले) में करीब 13,000 लोगों की हुई थी मौत। रुद्रप्रयाग की जखोली तहसील तब टिहरी रियासत में थी।

टिहरी -उत्तरकाशी में मृत्यु का आंकड़ा मैंने जनसंख्या वृद्धि दर आधी रह जाने के आधार पर निकाला है। गढ़वाल में कुल मृत्यु का आंकड़ा इतिहासकार डॉक्टर शिवप्रसाद डबराल का है। क्योंकि यह इनफ्लुएंजा प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान फैला, इसलिए इसे इतिहास में “युद्ध ज्वर” नाम भी दिया गया है। 1917 – 1918 के अकाल और विश्वयुद्ध ने बनाई थी, इसकी पृष्ठभूमि। अकाल और युद्ध ने इनफ्लुएंजा की मारक क्षमता बढ़ा दी थी। अनेक गांवों को छोड़कर जंगलों में चले गए थे हजारों लोग। तब तक गढ़वाल में आधुनिक स्वास्थ्य व्यवस्थाएं नहीं हो पाई थी विकसित। टिहरी रियासत के मुकाबले ब्रिटिश गढ़वाल में थी कुछ बेहतर।

गढ़वाल के प्रसिद्ध व्यवसायी घनानंद खंडूरी के दो भाई चन्द्रबल्लभ और तारादत्त तथा समाजसेवी धनीराम मिश्र का भी हुआ था इस इन्फ्लूएंजा से निधन। श्रीनगर के डॉक्टर भोलादत्त काला ने ज्वर पीड़ितों को बचाने की थी, भरपूर मेहनत। इस पर उन्हें मिली थी राय बहादुर की उपाधि।

1917 से 1919 तक रहा इन्फ्लूएंजा का जोर। विश्व युद्ध समाप्त होते ही पड़ा ठंडा। एच जी वॉल्टन की लिखी किताब ‘गढ़वाल हिमालय का गजेटियर’ के मुताबिक टिहरी रियासत में 1891 से 1901 के दशक में जनसंख्या वृद्धि दर 11.5% और 1901 से 1911 के दशक में 11.9 % थी। जबकि 1911 से 1921 के बीच रह गई थी मात्र 5.9% । जबकि यह करीब 12% होनी चाहिए थी। इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल ने ‘टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग-2’ में इस इन्फ्लूएंजा का उल्लेख किया है। और कुछ आंकड़े दिए हैं। बुजुर्गों से भी सुनी जाती हैं, इस युद्ध ज्वर की दर्दनाक कहानियां। मैंने भी अपने बचपन में सुनी थी। इन दिनों फिर स्मरण हो आई हैं।

यह भी माना जाता है कि यहां – वहां सड़कों, रास्तों और गांवों में पड़ी लाशों को खाकर ही रुद्रप्रयाग का बाघ, जिसे बाद में जिम कार्बेट ने मारा आदमखोर हो गया था। और हां, तब देहरादून सहित गढ़वाल की जनसंख्या थी, करीब दस लाख। दस लाख में 48,00,00 लोगों की मौत। अर्थात् प्रति एक सौ में करीब पांच लोग। यह आंकड़ा आपको बड़ा और डरावना लग सकता है। लेकिन देहरादून का आंकड़ा तो डॉक्टर डबराल ने देहरादून गजेटियर से लिया है –
देहरादून में इनफ्लुएंजा से चार वर्ष में मौत –
1916 – 3444
1917 -3501
1918 -7170
1919 -4514
कुल – 18629
शेष गढ़वाल का तीस हजार का आंकड़ा भी उन्हीं का है। (देखें – टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग – 2 पृष्ठ 6,7,8)

हां, एक बात और । यह फ्ल्यू शुरू कहां से हुआ, मुझे स्पष्ट जानकारी नहीं मिली। लेकिन 1916 की गर्मियों में अंग्रेज आई सी एस सैमियर की टिहरी के प्रतापनगर में मौत हो गई थी। हालांकि उसकी मौत हैजे से होनी बताई गई है। गढ़वाल की इस भीषण त्रासदी का कुछ लोकगीतों में भी जिक्र आया है – ” रोगू न सांस लेेणू मुश्किल होयूं छ भारी
नाना दुखु न ह्वेगे हा दुर्दशा हमारी ” ।

लेखक के बारे मेंमहिपाल नेगी उत्तराखण्ड के वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और कवि हैं. वह नई टिहरी में रहते हैं. महिपाल नेगी वकालत भी करते हैं. सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं पर बराबर लिखते रहते हैं.

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