नई दिल्लीः ‘संविधान का मूल ढांचा’… अक्सर अदालतों के फैसलों और प्रतियोगी परीक्षाओं में हम इसका जिक्र सुनते और पढ़ते हैं। संविधान में संशोधन की संसद की असीमित शक्तियों पर लगाम कसने वाला यह सिद्धांत 1973 में दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने जिस मामले में सुनवाई करते हुए यह सिद्धांत दिया, वह याचिका केरल के संत केशवानंद भारती ने दाखिल की थी। भारती को अक्सर ‘संविधान का रक्षक’ कहते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इसी याचिका पर फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि उसे संविधान के किसी भी संशोधन की समीक्षा का अधिकार है। भारतीय न्याय इतिहास में इस फैसले को ‘सबसे अहम’ करार दिया जाता है। सरकारों के मनमाने रुख के खिलाफ अदालत गए केशवानंद भारती अब इस दुनिया में नहीं है। उन्होंने इडनीर मठ में रविवार तड़के देह त्याग दिया।
- हाइलाइट्स
- केरल के मशहूर संत केशवानंद भारती का रविवार सुबह निधन
- सुप्रीम कोर्ट में केरल भूमि सुधार कानून को दी थी चुनौती
- केशवानंद बनाम केरल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया था ऐतिहासिक फैसला
- 13 जजों की बेंच ने दिया था ‘संविधान के मूल ढांचे’ का सिद्धांत
सुप्रीम कोर्ट क्यों गए थे केशवानंद भारती?
केरल के कासरगोड़ जिले में इडनीर मठ है। केशवानंद इसके प्रमुख बनने के उत्तराधिकारी थे। केरल सरकार ने दो भूमि सुधार कानून बनाए जिसके जरिए धार्मिक संपत्तियों के प्रबंधन पर नियंत्रण किया जाना था। उन दोनों कानूनों को संविधान की नौंवी सूची में रखा गया था ताकि न्यायपालिका उसकी समीक्षा न कर सके। साल 1970 में केशवानंद ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। यह मामला जब सुप्रीम कोर्ट पहुंता तो ऐतिहासिक हो गया। सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की बेंच बैठी, जो अबतक की सबसे बड़ी बेंच है। 68 दिन सुनवाई चली, यह भी अपने आप में एक रेकॉर्ड है। फैसला 703 पन्नों में सुनाया गया।
…वो फैसला जिसने बदल दिया राजनीति का रूप
23 मार्च, 1973 को सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। उस सिद्धांत कि संसद के पास संविधान को पूरी तरह से बदलने की शक्ति है, तार-तार कर दिया गया। चीफ जस्टिस एसएम सीकरी और जस्टिस एचआर खन्ना की अगुवाई वाली 13 जजों की बेंच ने 7:6 से यह फैसला दिया दिया था। SC ने कहा कि संसद के पास संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन का अधिकार तो है, लेकिन संविधान की मूल बातों से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। अदालत ने कहा कि संविधान के हर हिस्से को बदला जा सकता है, लेकिन उसकी न्यायिक समीक्षा होगी ताकि यह तय हो सके कि संविधान का आधार और ढांचा बरकरार है।
SC ही कर सकता है सिद्धांत में बदलाव
जस्टिस खन्ना ने अपने फैसले में ‘मूल ढांचा’ वाक्यांश का प्रयोग किया और कहा कि न्यायपालिका के पास उन संवैधानिक संशोधनों और कानूनों को अमान्य करार देने की शक्ति है जो इस सिद्धांत से मेल नहीं खाते। सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले में ‘मूल ढांचे’ की एक आउटलाइन भी पेश की थी। अदालत ने कहा था कि सेक्युलरिज्म और लोकतंत्र इसका हिस्सा हैं। पीठ ने आगे आने वाली पीठों के लिए इस मुद्दे को खुला रखा कि वे चाहें तो सिद्धांत में कुछ बातों को शामिल कर सकती हैं।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी मूल ढांचे का हिस्सा
भारती का केस तब के जाने-माने वकील नानी पालकीवाला ने लड़ा था। 13 जजों की बेंच ने 11 अलग-अलग फैसले दिए थे जिसमें से कुछ पर वह सहमत थे और कुछ पर असहमत। मगर ‘मूल ढांचे’ का सिद्धांत आगे चलकर कई अहम फैसलों की बुनियाद बना। कई संवैधानिक संशोधन अदालत में नहीं टिके। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी व्यवस्था दी कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है, इसलिए उससे छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।