डॉ. वीरेंद्र बर्त्वाल(वरिष्ठ पत्रकार)
आज से 30-35 साल पहले अपनी सुरीली आवाज से गढ़वाली जनमानस का तृप्त मनोरंजन करने वाले किशनसिंह पंवार इस दुनिया से विदा हो गए।
80 के दशक में टेपरिकॉर्डर के दौर में धार-धार, गांव-गांव श्रृंगरिक और जनजागरूकता गीतों से छाप छोड़ने वाले किशन सिंह अध्यापक से प्रसिद्ध गायक बन गए थे। ‘कै गऊं की होली छोरी तिमलू दाणी’ ‘न प्ये सपुरी तमाखू’, ‘ऋतु बौडी़ ऐगी’, ‘यूं आंख्यों न क्या-क्या नी देखी’, ‘बीडी़ को बंडल’ जैसे उनके गीत कालजयी बन गए और उन्हें अमर कर गए।
तब आज की तरह संगीत यंत्रों की प्रचुरता और समृद्धि-सुविधाएं नहीं थी,परंतु किशन जी ने संघर्ष के बूते अपनी मनोहारी आवाज को गढ़वालियों तक पहुंचाने में कसर नहीं छोडी़। शादियों में उनकी कैसेट्स की धूम रहती थी। उनके शृंगार गीतों में पवित्रता थी। उनमें पहाड़ का भोलापन और निश्छलता थी।
उनके गीतों के नायक-नायिका मेल-मुलाकात,मनोविनोद और हंसी-मजाक करते थे,परंतु मर्यादा के आवरण में रहकर। उनके गीत का नायक नायिका को बांज काटने के बहाने भेंट करने को बुलाता था। उनके गीतों की भीनी सुगंध आत्मा को तृप्ति और मन को सुकून देती थी।
टिहरी गढ़वाल के प्रतापनगर प्रखंड में रमोली पट्टी के नाग गांव में जन्मे किशनसिंह पंवार ने 70 साल की उम्र में देहरादून के अस्पताल में अंतिम सांस ली। विनम्र श्रद्धांजलि।