हिमालय सिर्फ बेजान पत्थरों-पहाड़ियों का समूह नहीं है, बल्कि प्रकृति की एक जिंदा इकाई है। इसलिए मनुष्य की तरह यह व्यवहार करता है और उसकी उम्र भी घट-बढ़ रही है। हिमालय और मानव जात का सदियों पुराना रिश्ता है, हिमालयी समाज इस रिश्ते की अहमितय को समझता है। यही वजह है कि पर्वतीय समाज ने हमेशा हिमालय को तवज्जो दी। लेकिन विगत कुछ दशकों में छद्म विकास के नाम पर उद्दंड मानव ने नाजुक हिमालय से छेड़छाड़ करनी शुरू कर दी। मानव की अतियों से क्षुब्ध हिमालय ने अब पलटवार करना शुरू कर दिया। वर्ष 2013 में आई केदारनाथ आपदा और तपोवन की भीषण त्रासदी इसके ज्वलंत उदाहरण है। हिमालय के स्वभाव और विकास की अंधी दौड़ को रेखांकित करता वरिष्ठ पत्रकार पंडित चन्द्रबल्लभ फोंदणी का यह लेख।
विकासवाद के प्रवर्तक जिराफ की लंबी गर्दन का राज बेपर्दा करते हुए कहते हैं कि, जिराफ ने जिंदा रहने के लिए अपनी गर्दन को लंबा किया। यानि उसने खुद को कुदरत के हिसाब से ढाला.. और ऊंचे पेड़ की पत्तियां खाने के लिए धीरे-धीरे उसकी गर्दन लंबी होती चली गई। कितने गजब की बात है! जानवर ने खुद को प्रकृति के हिसाब से बदला और जिंदा रहा..दूसरी ओर हम इंसान हैं, जो खुद को नहीं बदल रहे कुदरत को अपने हिसाब से बदलने की कोशिश कर रहे हैं।
चमोली में हुई तपोवन त्रासदी से पहले भी कुदरत ने हम उत्तराखंडियों को कई बार नाजुक हिमालय के संकेत दिए। जरा याद कीजिए.. जब गांव में बरसात या बरसात के कुछ दिन बाद कोई पगार (पुस्ता) नीचे वाले खेत में बिखरता था। वो उस खुदाई का नतीजा था जो हमारे पुरखों ने पहाड़ों को खेत-खलिहान में बदलने के लिए किया था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने उस नाजुक हिमालय की देह की चिंता की..उस खेत के पुस्ते पर पेड़ भी रोपे ताकि मिट्टी पत्थर पेड़ की जड़ की आगोश में रहे और उसे अगली बरसात के लिए मजबूत बनाएं..लेकिन यहां हम क्या कर रहे हैं..?
प्रकृति से ही निकला था वह, पर उसने खुद को हमेशा प्रकृति से अलग माना। इच्छाओं के अनियंत्रित प्रमाद में रौदता रहता प्रकृति को। प्रकृति चुप रही सदियों तक, सहती रही अविराम और श्रीकृष्ण की तरह करती रही शिशुपालों को माफ… और फिर जिस दिन पाप का घड़ा भरा, प्रकृति के कोप से कोई न बच सका- न मर्यादाओं को लांघने वाले, न ही इसे चुपचाप सहने वाले।
भूकंप के लिहाज से सबसे संवेदनशील जोन पांच में रहने के बावजूद हम उस हिमालय को नोच रहे हैं, जो अभी किशोर अवस्था में हैं। अविरल बहने वाली गंगा की चाल को रोक रहे हैं ताकि उसका पानी भारी-भारी टरबाइन घुमा सके। हिमालय के नाजुक कांधे पर हमने भारी-भरकम बांधों का जुआ रख दिया है ताकि पहाड़ों में बिजली पैदा हो और महानगरों की जरूरतें पूरी कर सके। सिर्फ पहाड़ों में ही नहीं बल्कि हिमालय की तलहटी में भी।
नदी, नाले और धरती को इंसानी सितम सहने को मजबूर किया जा रहा है। जरा सोचिए क्या जोन पांच का देहरादून पांच छह मंजिला इमारतों के सहने के काबिल है..? विज्ञान ने हमारी जिंदगी को सहलूयित दी हैं लेकिन अब विज्ञान का इस्तेमाल कहां होना है और किस तरह करना है ये तय करना हमारे हाथ में हैं। जिस बंदूक का परमिट आत्मरक्षा के लिए किया जाता है वही बंदूक खुदकुशी का भी हथियार बन जाती है। हमारे पुरखे हिमालय के मिजाज को समझते थे शायद यही वजह है कि उन्होने पहाड़ी गांव में मिट्टी, पत्थर और लकड़ी के घर बनाए। हमारे पुरखों ने हिमालय को समझा और उसी के अनुरूप खुद को ढाला। लेकिन हम खुद को तीसमारखां समझ रहे हैं, खुद को प्रकृति के हिसाब से नहीं, बल्कि अतुलित बलशाली कुदरत को हमारे हिसाब से जबरन बदलवा रहे हैं।
क्या हैं हिमालय के मायने
* हिमालय में सैकड़ों की संख्या में ग्लेशियर और ताल मौजूद हैं।
* इसकी 30 चोटियों की ऊंचाई 25 हजार फीट से ज्यादा है।
* विश्व की 14 सबसे ऊंची पर्वत चोटियों में से 9 हिमालय में हैं।
* हिमालय सिर्फ एक पर्वतमाला नहीं अपितु तीन समानांतर पर्वतमालाओं का एक क्लस्टर है।
* अंटार्कटिका और आर्कटिक के बाद तीसरा हिमालय ही है जहां बर्फ का इतना बड़ा भण्डार जमा है।
* दुनिया का सबसे बड़ा ग्लेशियर सियाचिन भी हिमालय में स्थित है।
* वैज्ञानिकों के मुताबिक हिमालय बायो-डायवर्सिटी के मामले में दुनियाभर में अतुल्य है।
* जहां आज हिमालय है, वहां कभी टेथिस सागर था।
* यहीं से 1998 में व्हेल की सबसे पुरानी प्रजाति का जीवाश्म मिला था।
* महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में हिमालय में छह ऋतुओं का जिक्र किया था।
कई साथी ये भी तर्क दे सकते हैं कि फिर तो हमें हिमालय में कोई विकास नहीं करना चाहिए। एक बड़ी आबादी को उसके हाल पर कुदरत के साथ छोड़ देना चाहिए आदिम युग में जीने के लिए। लेकिन मुझे लगता है कि हमें हिमालय के हिसाब से ही खुद के लिए साधन विकसित करने होंगे। सड़क के बजाए रोप वे अपना होगा। बड़े बांध के बजाए घराट वाली बिजली, सौर ऊर्जा पर जोर देना होगा। बहुमंजिला इमारत की जगह फिर तिमंजली तिबारियों पर गौर फरमाना होगा। खूब पेड़ लगाने होंगे, जो चाल खाल पहाड़ में मिट्टी मे छिप गई हैं उन्हें फिर जिंदा करना होगा ताकि हिमालय जिंदा रहे और हम भी जिंदा रहें।
जरा सोचिए, विकास किस के लिए है, इंसानो के लिए या इंसान विकास के लिए। रही रोजगार की बात तो ये सरकार को सोचना होगा उन मोटी पगार लेने वाले काबिल अफसरों को सोचना होगा कि क्या उत्तराखंड में शराब, खनन, और बिजली परियोजनाएं ही रोजगार पैदा कर सकती हैं। जरा इस पर भी गौर फरमाया जाए कि अगर ये तीनो धंधे रोजगार पैदा करते हैं तो उससे कितने उत्तराखंडियों को रोजगार हासिल हो रहा है। जबकी जल. जंगल, जमीन, कुदरती सौंदर्य, पशुपालन खेती-बागवानी जिस रोजगार को पैदा कर रहे हैं उससे कितने लोगों का परिवार पल रहा है। लिहाजा जरूरी है एक मंथन हो..ताकि पहाड़ की मिट्टी में पहाड़ का पानी और उसकी जवानी को कुदरत का क्रोध न झेलना पड़े।
लेखक के बारे में:- पंडित चन्द्रबल्लभ फोंदणी उत्तराखण्ड के वरिष्ठ पत्रकार हैं। दो दशक से ज्यादा समय से पत्रकारिता के क्षेत्र में डटे फोंदणी वर्तमान में एपीएन न्यूज चैनल में काॅपी एडिटर पद पर कार्यरत हैं। उत्तराखंड की गहरी समझ रखने वाले फोंदणी पृथक राज्य आंदोलन व छात्र राजनीति का हिस्सा रहे। टिहरी के मूल निवासी चन्द्रबल्लभ फोंदणी समसामयिक मुद्दों और ग्रामीण परिवेश पर लिखते रहते हैं।