समान कार्य, समान वेतन और नियमितीकरण की मांग को लेकर उपनलकर्मी सरकार से सीधे टकराव के मूड़ में है। संविदाकर्मी हर रोज इस आस में रहते हैं कि एक दिन सरकार उन्हें पक्का करेगी। लेकिन सरकार की भी अपनी मजबूरियां हैं। सरकार चाह कर भी संविदाकर्मियों के नियमितिकरण करने से क्यों हिचक रही है, बता रहें हैं वरिष्ठ पत्रकार पंडित चन्द्रबल्लभ फोंदणी।
उत्तराखंड में कोई भी ऐसा सरकारी विभाग नहीं है जहां उपनल के मार्फत संविदाकर्मी तैनात न हों। इन संविदाकर्मियों से पूरा काम लिया जाता है, लेकिन इनकी पगार पक्के मुलाजिमों के मुकाबले बेहद कम है। इन संविदाकर्मियों को उम्मीद है कि किसी दिन कोई सरकार इन पर मेहरबान होगी और इनकी सेवाओं को देखते हुए इन्हें पक्का कर देगी। लिहाजा पूरी तन्मयता से मुलाजिम सरकारी दफ्तरों को अपने कांधों पर उठाए हैं।जब से इनकी तैनाती हुई है। हर सरकार में संविदा कर्मियों ने समान काम के बदले समान वेतन की मांग की और नौकरी को पक्का करने की गुहार लगाई, लेकिन ऐसा अब तक नहीं हुआ। हालांकि मुझे लगता है कि ये होना मुमकिन भी नहीं है।
दरअसल सवाल ये है कि अगर सरकार के पास पूरी पगार देने के इंतजाम होते तो सरकार इन्हें संविदा पर रखती ही क्यों? दूसरी बात उपनल के मार्फत नौकरी कर रहे इस तबके को किसी प्रतियोगी परीक्षा पास करने के बाद ये नौकरी हासिल नहीं हुई। ज्यादातरों को तिकड़म और सिफारिश के जरिए नौकरी हासिल हुई है। ऐसे में सरकार के सामने दिक्कत ये है कि अगर इन्हें पक्का करते हैं तो समाज के बीच गलत संदेश जाएगा। हो सकता है राज्य के वो नौजवान भड़क जाएं जो सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे हैं। कोचिंग सेंटर में फीस अदा कर रहे हैं अपने घर-परिवार से दूर रहकर किताबों में आंख गड़ाए बैठे हैं। सुनहरे भविष्य के ख्वाब बुन रहे हैं।
जाहिर सी बात है कि, अगर ये तबका भड़का तो चुनावों में उनका और उनके परिजनांे का गुस्सा ईवीएम पर दिखाई दे सकता है, अगर कुछ गडबड़ नहीं हुई तो.. क्योंकि उनकी तो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में ही उम्र गुजर रही है, न तो नौकरियों की विज्ञप्ति निकल रही है और न जितने बेरोजगार है उसके हिसाब से सरकारी नौकरियों में पद खाली हैं। लिहाजा कोचिंग सेंटर में फीस अदा कर रहा नौजवान भी परेशान है और अपनी संतान के लिए व्हाॅइट काॅलर जाॅब का ख्बाब देखने वाला अभिभावक भी..इधर कार्यबहिष्कार पर जा चुके संविदाकर्मी भी परेशान हैं..उनके सामने आगे कुआं पीछे खाई वाले हालात हैं, सरकार पगार नहीं बढ़ाती तो महंगाई डायन बनकर जिंदगी को डरा रही है, और अगर सरकार नौकरी से हटाती है तो बाल-बच्चे पालने में मुश्किलात आ गई है।
क्योंकि संविदा में जाॅब करते हुए उम्मीदों के चिराग रोशन हुए और अभिभावकों ने गृहस्थी बनवा दिया। आलम ये है कि अब नौकरी के अलावा कोई चारा नहीं और कुछ करने की कोशिश भूसे में सुई खोजने से कम नहीं। ऐसे में जाएं तो कहां जांए? बहरहाल संविदा कर्मियो के सवाल सरकार के सामने भी पेंचीदा हैं और संविदा पर लगे तबके के सामने भी, ऐसे में जरूरत है अगली पीढ़ी को व्हाइट काॅलर जाॅब के ख्वाब से बचाने की। एक ऐसी संस्कृति विकसित करने की ताक युवा काॅलेज से निकलते ही लघु उद्यमी बने और वो सरकारी नौकरी को हिकारत की नजर से देखे।
हालांकि उत्तराखंड में एक बड़ा वक्त गुजर गया है लेकिन सरकार चाहे तो सब कुछ मुमकिन हो सकता है। बशर्ते छठवीं से दर्जा 12वीं तक तालीम में बड़ा बदलाव करना होगा। सहकारिता इस ख्वाब को सच कर सकती है, बस अभिभावकों उस धारणा से मुक्त होना होगा जो उनके बेटों को सिर्फ नौकर बनाती है मालिक नहीं और जिसका सब्जबाग उन्हें अपनी जड़ो से दूर शहरों में खींच लाया है। जहां हासिल कुछ नहीं हुआ, सिवाय मिलावट के सामान और बीमारियों के।
अब अभिभावकों को समझना होगा कि सरकारी नौकर बनने के लिए ही तालीम नहीं ली जाती। वहीं सरकार को भी समझना होगा कि अगर शहर-गांव को बचाना है तो आमूलचूल परिवर्तन करना होगा समाज में शिक्षा में सहकारिता में और सोच में, ताकि उत्तराखंड में समृद्धि रहे, सकून रहे जल रहे जंगल रहे और गांव शहर खुशहाल रहे।बहरहाल मुझे लगता है कि अब सरकार को संविदा तकनीक के प्रयोग से बचना चाहिए ताकि उन नौजवानो का भविष्य बच सके जो प्रतियोगी परीक्षाओं की की तैयारी कर रहे हैं, साथ ही साथ सच बोलने से भी नहीं हिचकना चाहिए..ताकि नौजवान और अभिभावक हकीकत से वाकिफ हो सकें।
लेखक के बारे में:- पंडित चन्द्रबल्लभ फोंदणी उत्तराखण्ड के वरिष्ठ पत्रकार हैं। दो दशक से ज्यादा समय से पत्रकारिता के क्षेत्र में डटे फोंदणी वर्तमान में एपीएन न्यूज चैनल में काॅपी एडिटर पद पर कार्यरत हैं। उत्तराखंड की गहरी समझ रखने वाले फोंदणी पृथक राज्य आंदोलन व छात्र राजनीति का हिस्सा रहे। टिहरी के मूल निवासी चन्द्रबल्लभ फोंदणी समसामयिक मुद्दों और ग्रामीण परिवेश पर लिखते रहते हैं।